डॉ. रामबली मिश्र
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हरिहरपुरी की कुण्डलिया
सागर मन-भव से निकल, उठतीं सतत तरंग।
रंग-रंग के रूप हैं, विविध अंग-प्रत्यंग।।
विविध अंग-प्रत्यंग, बनाते अनुपम जगती।
तरह-तरह के दृश्य, विविध लगती यह धरती।।
कहें मिसिर कविराय,तरंगें रचतीं नागर।
मन को अद्भुत जान,भरा है इसमें सागर।।
Abhilasha deshpande
12-Jan-2023 05:09 PM
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अदिति झा
12-Jan-2023 04:16 PM
Nice 👍🏼
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Abhilasha deshpande
12-Jan-2023 05:09 PM
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अदिति झा
12-Jan-2023 04:16 PM
Nice 👍🏼
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