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हरिहरपुरी की कुण्डलिया




हरिहरपुरी की कुण्डलिया


सागर  मन-भव से निकल, उठतीं सतत तरंग।

रंग-रंग के रूप हैं, विविध अंग-प्रत्यंग।।

विविध अंग-प्रत्यंग, बनाते अनुपम जगती।

तरह-तरह के दृश्य, विविध लगती यह धरती।।

कहें मिसिर कविराय,तरंगें रचतीं नागर।

मन को अद्भुत जान,भरा है इसमें सागर।।




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2 Comments

Abhilasha deshpande

12-Jan-2023 05:09 PM

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अदिति झा

12-Jan-2023 04:16 PM

Nice 👍🏼

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